Friday, October 30, 2015


30 अक्तूबर 2015.न्यू अशोकनगर.दिल्ली


कहीं कोई आवाज नहीं
कोई हल्की-सी जुंबिश भी नहीं
इशारे ही इशारे हैं
माजी की खुशगवार यादें
चली आई हैं 
उनके जुल्फों से खुशबू समेटी हुई
बियाबाँ में रहने का हुनर दे रही हैं
तसव्वुर में खिल रही है झरनों की हँसी
उम्मीद सी लहरें मचल जा रही हैं
कोई बता दे उन्हें कि
कभी हमने भी
लहरों में घर बनाया था
आज भी ख्वाबों में वह घर
हकीकत है।
बिहारियत के संदर्भ में बिहार चुनाव और विकास पर हेमन्त की राय:
बिहार विधानसभा चुनाव 2015
विकास का तूफान चाय की प्याली में!
--हेमन्त
(बन्धुओ, यह एक सप्ताह पहले की बात है। दिल्ली से छपने वाले एक अंग्रेजी अखबार के हमारे मित्र ने बिहार चुनाव के बारे में एक अजीब-सा सवाल पूछा – “भाई साहब, आप बताइए तो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब चाय बेचा करते थे, किस में चाय बेचा करते थे? कुल्हड़ में कि कांच के गिलास में या कि प्लास्टिक के ग्लास में?”
सवाल सुनकर मैं चौंका। पूछा – “ ये कैसा सवाल? आपके दिमाग में ऐसा सवाल क्यों कर उठा?”
तब उन्होंने विस्तार से पूरी बात बताई। उन्होंने बताया – “अरे भाई जी, आप जानते हैं, मैं आज ही पटना पहुंचा। बिहार विधानसभा चुनाव के तीसरे चरण का मतदान कवर करने के लिए। मैंने पटना स्टेशन पर ही भीड़-भाड़ के बीच एक बुजुर्ग ग्रामीण को किसी युवक से कुछ बतियाते देखा। मैं रुक गया। भीड़-भाड़ में उस बूढ़े की पूरी बात तो सुन नहीं सका। सिर्फ कुछ-कुछ वाक्य और शब्द कान में पड़े। उससे मैंने अनुमान लगाया कि वह बूढ़ा शायद ऐसा ही कुछ कह रहा था – ‘...बचवा, हम सुने हैं कि हमरे देस के परधानमंतरी नरेंदर मोदी जी भी कभी चाय बेचते थे। तुमको पता है, वो कब ...कितने समय तकले चाय बेचते रहे? उमरिया के हिसाब से तो बुझाता है, हमरी और उनकी उमर करीब-करीब बराबरे है। ...हम तो आज भी चाये बेचते हैं...।’ अगर अंतिम वाक्य ठीक-ठीक और पूरा न सुनता, तो मैं इस सब को अनुमान मानकर चुप रहता, आपसे न कहता, न पूछता। उस बूढ़े का अंतिम वाक्य यह था – ‘...नरेंदर मोदी जी चयवा बेचते थे, तो गाहक को किसमें चाय देते थे - कुल्हड़ में कि गिलसवा में?’”
मैं समझ गया। मैंने हंसते हुए पूछा – “तो बूढ़े के सवाल पर युवक ने क्या कहा?”
पत्रकार ने कहा – “अरे भाई साहब, मैंने देखा, बूढ़े का सवाल सुनकर वह युवक हंसता रह गया और चुपचाप आगे बढ़ गया। उसे कोई जवाब देते मैंने देखा नहीं। इसीलिए आप से पूछ रहा हूं।”
तब मैंने कहा – “आप कुल्हड़ से परिचित हैं न?”
उन्होंने कहा – “हां।” तब मैंने कहा – “असल सवाल उसी कुल्हड़ में समाया है। बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह बताते हुए कि वे पहले रेल में चाय बेचते थे, बिहार में सत्ता पर कब्जा के लिए में विकास का वैसा ही तूफान उठाना चाहते हैं, जैसा कि उन्होंने 16 महीने दिल्ली (केंद्र) पर कब्जा के लिए उठाया था। सो आज बिहार के आम जन-मन में यह बहस का विषय है कि मोदी जी के विकास के इस तूफान को वर्ष 2004 के उस ‘कुल्हड़ में तूफान’ के विरोध का प्रमाण क्यों न माना जाए, जिसे तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद जी ने उठाया था? संभवतः बुजुर्ग के सवाल का संकेत यही है कि बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में बिहारी मानस इस बहस से गुजरते हुए अपने मताधिकार का प्रयोग कर रहा है।” यह कहते हुए मैंने पत्रकार मित्र को मैंने 2012 में प्रकाशित किताब ‘बिहार एक खोज’ के एक आलेख ‘विकास के तूफान में’ को दोबारा पढ़ने का अनुरोध किया। और, यहां उसी आलेख के कुछ अंश पेश करने का दुस्साहस कर रहा हूं।)
...21वीं सदी में एक ‘विकास का तूफान’ उठा। वर्ष 2004 में। वह तूफान चाय के कुल्हड़ में उठा था और पूरे देश में वह चल निकला था। इसके पहले तक कई तूफान अंग्रेजी मुहावरे – ‘स्टॉर्म इन ए टी कप’ - में सिमटा रह जाते थे। लेकिन जब तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद ने कुल्हड़ में चाय बेचने का फरमान जारी किया, तब से सिर्फ बिहार नहीं, बल्कि ‘भारत’ सहित ‘इंडिया’ के बौद्धिक जगत में यह तूफान असर करने लगा। पहले ‘इंडिया’ के चाय के लिए भी ‘भारत’ का हिंदी पट्टी - काऊ बेल्ट - ही अधिकांश ‘दूध’ की आपूर्ति करता था, लेकिन अंग्रेजी प्याली में उठनेवाले तूफानों से देश का बौद्धिक जगत गाफिल रहता था। जब मिट्टी के कुल्हड़ ‘इको फ्रेंडली’ सिस्टम और 21वीं सदी के ‘जॉबलेस फ्यूचर’ में एंप्लॉयमेंट जेनरेशन का सबसे बढि़या साधन माने जाने लगे, तब से मुंबई के दलाल स्ट्रीट में होनेवाले सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव की तरह ‘कुल्हड़ में तूफान’ पूरे भारत में हलचल मचा गया। 21वीं सदी के इस तूफान की खास बात यह रही कि इसका केंद्र बिहार में नहीं, बल्कि ‘बिहार’ इसका केंद्र रहा - बिहार में केंद्र नहीं, बिहार ही केंद्र! तबसे पेड़ से टूटकर दूर-दूर तक फिजाओं में खुशबू बिखेरनेवाले ताजा हरे पत्तों की तरह ‘बिहारी अस्मिता की पहचान और विकास’ की चर्चाएं देश भर में चल पड़ीं। आम लोगों की ‘भाखा’ में चरचा और खास लोगों की ‘भाषा’ में विमर्श!
बहरहाल, बिहारी अस्मिता से जुड़ी वह हरी-हरी चर्चा न सिर्फ पहचान की थी और न ही सिर्फ विकास की। चर्चा थी पहचान बनाम विकास की! एक साल बाद ही विधानसभा चुनाव में जीत के बाद ‘सुशासन बाबू’ नीतीश जी ने बिहार की सत्ता संभाली, तो उक्त चर्चा का शीर्षक बदल गया। कहिए कि बहस-विमर्श का मुहावरा ही बदल गया। क्योंकि तब से चर्चा शुरू हुई ‘पहचान के साथ विकास की’। पढ़े-लिखों की भाषा में यह बिहार के आम राजनीतिक-सांस्कृतिक चिंतन में ‘पराडाइम शिफ्ट’ का संकेत था। सो इस चरचा में बिहार में रहनेवाला आम गरीब-गुरबा - बीमारू लेकिन जुझारू (!) बिहारी से लेकर रोटी-दाल के जोगाड़ के लिए बिहार से बाहर जानेवाला – ‘गाली’ खाते हुए हर छठ-छमाही पर ‘हंसी-खुशी’ घर लौटनेवाला - आम ‘बिहारी’ सहित तमाम खास लोग शामिल हो गये - भाषणजीवी राजनीतिज्ञ, राशनजीवी अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी समाजशास्त्री, अतीतजीवी इतिहासकार, मसिजीवी पत्रकार, निराकार सरकार, साकार बेकार सब!
देश के तमाम खास लोगों पर चर्चा का खासा असर भी दिखा। असर माने यह कि उन खास चेहरों पर अजीब सी चिढ़-चिंता, तनाव-खिंचाव, लिप्सा-वैराग्य, विरोध-समर्थन, कुछ नया कर गुजरने का उत्साह और कुछ भी न हो सकने की निराशा आदि-आदि की जलन-तपन साफ दिखने लगी। हर तपता चेहरा सतरंगा, लेकिन इंद्रधनुषी नहीं! सूरज में भी सात रंग होते हैं न, लेकिन इस कदर तपता है और तेज घूमता है कि वह अगिन-सफेद नजर आता है! कुछ ऐसी ही थी उन खास चेहरों की रंगत! बिहार में तो सब के सब आमोखास मुखर हो गये। सबने खूब लिखा किया, खूब बोला किया, खूब बतियाया भी। वह भी ऐसे-वैसे नहीं। कोई बिहारीपन की थ्योरी बांचने लगा। कोई बिहार के विकास पर थ्योरी ‘भांजने’ लगा! कोई बिहार में उत्पादित विचार से लेकर सामान तक को ‘मेड इन बिहार’ (तब के मेड इन इंडिया और आज के मेक इन इंडिया से अलग!) के ब्रांड नेम से बाहर के राजनीति के बाजार से लेकर बाजार की राजनीति तक में कंपीट करने की रणनीति पर विचार करने लगा। और, कोई बाहर व्याप्त ‘बिहार सिंड्रोम’ का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए उस बिहारीपन की तलाश करने लगा, जो ताकत का बोध कराये।
तब से यह साफ दिखने लगा कि कल तक ‘बिहार और बिहारी’ से जुड़ी जो बात-बहस ‘गैरों की महफिल’ में महज ‘वल्गर’ मजा और मजाक का सामां बनती थी, वह अपने आप में इतनी ‘बलगर’ (शक्तिशाली) होने लगी कि गैरों को भी गंभीर होने को मजबूर करे। इधर अस्तित्व और अस्मिता जैसे शब्द भी, जो पहले आदतन कोल्ड कॉफी पीनेवालों के कप से उठनेवाला ठंडा और निर्गुण धुआं जैसा लगते थे, अब कुल्हड़ की गर्म चाय का गर्मागर्म और सगुण धुआं बन गये।
इसका नतीजा वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में साफ दिखा। तब से देश के आम भारतीय भी बिहार के विकास के लिए बिहारी की पहचान और विकास की बहस को ‘अस्तित्व और अस्मिता’ जैसी शब्दावली में ढालने की कोशिशों को जरूरी मान कर उसे गंभीरता से ग्रहण करने लगे। इधर बिहारी आम बिहारी यह समझने की कोशिश करने लगा कि बिहार की पहचान और विकास का मामला कहां अटका है, विकास के लिए उसकी कौन सी पहचान अवरोधक है और अपनी पहचान के लिए वह विकास का कौन-सा रास्ता चुने? अस्मिता से संबंधित कौन से ऐसे सैद्धांतिक सवाल हैं, जिन पर विचार किये बिना विकास के नाम पर पेश किये जा रहे व्यावहारिक जवाब उसके मूल अस्तित्व को बेमानी करते हैं?
और, यह नजर आने लगा कि बिहारी मानस बिहार के विकास के मार्ग पर पड़े इस स्वनिर्मित अवरोध को पहचानने लगा है कि वह (बिहारी मानस) आज तक अपनी राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान अक्षुण्ण रखने के लिए अपनी जातीय (जातिगत नहीं) अस्मिता पर अपने स्वामित्व-बोध को त्यागता आ रहा था। अब इस त्याग के मोह से मुक्त होना जरूरी है। यानी बिहारी अस्मिता में ‘ओनरशिप’ का बोध आकार लेने लगा है।
लेकिन अगले दो-तीन साल में ही बिहारी मानस इस वास्तविकता को पहचानने लगा कि दिल्ली (केंद्र) में जहां सामाजिक न्याय के बिना आर्थिक विकास की रफ्रतार तेज करने की सत्ता-राजनीति का जोर बदस्तूर कायम है, वहीं बिहार में आर्थिक विकास की अपनी किसी कारगर रणनीति के अभाव में सामाजिक न्याय का राजनीतिक संघर्ष पस्त हो रहा है। वह इस आशंका से ग्रस्त होने लगा कि अपने अस्तित्व रक्षा के लिए वह जिस बिहारी अस्मिता की प्रभुत्वशील पहचान गढ़ रहा है, वह पहचान पहले की तरह केंद्र पर काबिज या काबिज होने को आतुर प्रभुओं के लिए बिहार की सत्ता-राजनीति पर कब्जा करने या काबिज रहने का हथकंडा मात्र बन जाएगा।
वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ, तो बिहारी मानस को यह खतरा महसूस होने लगा कि उसका बिहारीपन पूरे बिहार की सृजनशील सामाजिक ताकत की बजाय ‘बांटो और राज करो’ की खंडित राजनीति चलाने के लिए प्रभुवर्ग की लाठी बन जाएगा! क्योंकि उसी वक्त केंद्र की सत्ता-राजनीति पर अपने वर्चस्व के लिए बिहार में जाति की सीमाओं में बंधे अगड़े और पिछड़े नेतृत्व, दोनों के चेहरे एक जैसे नजर आने लगे।
और, अब बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में ‘सीएम बनाम पीएम’ की धुरी पर जो संघर्ष चल रहा है, उससे बिहारी मानस की आशंका और सवाल ठोस और साकार नजर आने लगे हैं। वैसे, इस नजारे का एक स्पष्ट मायने यह है कि बिहार संक्रमण के दौर में पहुंच गया है। अब बिहारी अस्मिता बहस के दायरे में आ गयी है। उसमें यह एहसास मुखर है कि उसे किसी बाहरी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए नहीं, बल्कि अपने बिहारी मानस को संपूर्णता में खुद पहचानने के निर्मम रास्तों से गुजरना होगा। इन रास्तों पर सवालों के कांटे ज्यादा हैं, जवाब के फूल-फल नहीं।
बहरहाल, बिहार के विकास के लिए बिहारीपन की ठोस पहचान को जरूरी माननेवाले लोग इस नग्न वास्तविकता से नजर नहीं चुराना चाहते कि अस्मिता का प्रश्न विशेष रूप से विचारधारा और राजनीतिक रणीनति का निर्णायक प्रश्न बनता जा रहा है। धर्म, वर्ण आदि विभेदों पर केंद्रित होकर एक अस्मिता को दूसरी अस्मिता के प्रतिपक्ष में खड़ा किया जा रहा है। अस्मिता का प्रश्न समदृष्टि की अपेक्षा विद्वेष पर आधारित हो रहा है, जिसके कारण असहिष्णुता सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्य बनती जा रही है। अस्मिता की जातिगत-साम्प्रदायिक व्याख्याओं में कभी अतीत को वर्तमान से और कभी वर्तमान को अतीत से व्याख्यायित करके उसे अपने तात्कालिक एजेंडे के अनुकूल प्रस्तुत किया जा रहा है।
हालांकि इस नग्न वास्तविकता को स्वीकार करते हुए भी बिहार के विकास के लिए अस्मिता की नयी जमीन की तलाश में लगे ‘बिहारी’ लोग देश के चिंतनरत विद्वानों की इस आशावादिता को स्वीकार करना चाहते हैं कि “अतीत और इतिहास तथा स्मृतियां उस समय तक ही जीवंत और शक्तिदायक बनी रहती हैं, जब तक वे भविष्योन्मुख होती हैं। अतः हमें इस बात पर विचार करना होगा कि एक बहुसांस्कृतिक संसार में अस्मिता का सहअस्तित्व किस प्रकार समानताओं की तलाश में रचनात्मक तथा सृजनात्मक प्रक्रिया को तीव्र करता है।”

Wednesday, October 28, 2015

कास्ट, क्लास और मास के बीच रास्ते की तलाश



- हेमन्त


(बन्धुओ, मैं अपना यह लेख ‘कास्ट, क्लास और मास के बीच रास्ते की तलाश’ फेसबुक में दर्ज करने के पहले बिहार में चल रहे वर्तमान चुनावी दंगल से जुड़ा एक वाकया सुनाना चाहता हूं। यह दिलचस्प वाकया कोलकता से छपने वाले एक बांग्ला अखबार के हमारे बंगाली मित्र ने फोन पर कह सुनाया। वह हिन्दी में बोल-बतिया रहे थे। उनके बंगाली टोन में पगी हिन्दी बोली-बानी को मैं यूं चख रहा था जैसे बंगाल का मिष्टी रॅसोगुल्ला!
मैं उनकी बातों को उनकी ही हिन्दी में आपको सुनाऊं, यह यहां संभव नहीं। अंग्रेजी की नकल करने में अपनी पूरी ताकत खर्च कर चुकी मेरी हिन्दी पत्रकारिता अब क्या खाक मुसलमां होगी! खैर। उन्होंने फोन पर हंसते हुए जो कुछ सुनाया, उसका आशय यह था : उन्होंने पहले देसी मीडिया की वर्तमान समझ के मुताबिक बताया कि “इस बार भी चुनाव परिणामों में जाति का जोर दिखेगा। लेकिन फिलहाल यह जाहिर हो गया है कि हर जाति के अंदर का जातिवादी नेतृत्व धोखे की आशंका से ग्रस्त है। जाति के आधार पर पार्टियों एवं गठबंधनों की चुनावी सीमा-संभावनाओं का आकलन करनेवाली मीडिया-प्रजाति भी पसोपेश में है। पिछले चुनावों का यह आम अनुभव रहा है कि बिहारी मतदाता कभी ‘जात’ के नाम पर ‘साधु जनप्रतिनिधि’ पाने की अपनी अपेक्षा व आदर्श को लुटता देखता रहा है। कभी जात की सीमाओं को तोड़कर जनप्रतिनिधियों को चुनने की कोशिश की भी तो ‘जात से भी गया और भात से भी।’ बिहार के चुनावी राजनीति के खेल में मुख्य प्रतिद्वंद्वी दलों का नंगापन यहीं से शुरू होता रहा है और इसी नंगई पर पहुंचता रहा है। ...ये तो खुला यथार्थ है, बिहार का समाज जात में बंटा है। जातिगत विषमताओं से ग्रस्त है। उसकी आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियां इस विषमता की साक्षी हैं। लेकिन इस विषमता के अंदर का सच यह है कि अक्सर पीडि़त व्यक्ति अपनी कमजोरी को ही अपने अस्तित्व का आधार बना लेता है। जिसे वह जहर मानता है, उसके अमृत होने की आशा में दूसरों के हाथों ग्रहण कर लेता है। लेकिन मुझे लगता है, इस बार का परिदृश्य कुछ बदला-बदला सा है। हालांकि क्या बदल रहा है, यह ठीक-ठीक पकड़ में नहीं आ रहा, जबकि मैं पिछले एक महीने से बिहार में डेरा डाले हुए हूं। हां, सप्ताह-दस दिन पहले एक घटना हुई। उससे कुछ-कुछ समझ में आया कि बिहार बदलाव के किस करवट उठने की कोशिश में है। हुआ यह कि एक नेताजी वोट मांगने स्वजातीय गांव गये और वहां अपनी जात के मंच से इलाके की गैरजात जनता तक आवाज पहुंचाई – ‘भाइयो, हम सब बिहारी हैं। हमें गर्व है कि हम बिहारी हैं। वोट देते वक्त याद रखिएगा - मैं भी बिहारी हूं।’ मैंने नेताजी के एक समर्थक से पूछा – ‘भई, आपके नेताजी को ऐसा क्यों कहना पड़ रहा है कि वह भी बिहारी हैं?’ तो  उसने कहा – ‘भाई साहब, आप बाहर के पत्तरकार हैं। आप से का छिपाना। मेरी जातवालों ने नेताजी से कहा कि अकेले हमारे भोट से वह जीत नहीं सकते। और, जात भाइयों का भोट का जोगाड़ कीजिए। नहीं तो अबकी हमलोग अपना भोट आपको देकर बेकार नहीं करेंगे।’)
 बिहार विधानसभा चुनाव-2015 के लिए जारी प्रचार अभियान में दिल्ली से लेकर पटना तक के प्रभु वर्ग की ओर से बिहार के अंतिम आदमी की चेतना में ‘विकास’ के मायने को तीन कारकों में रूपायित किया जा रहा है - सड़क, बिजली और पानी। फिलहाल इन तीन चीजों के निर्माण और उसके समान एवं न्यायसंगत वितरण के वादे और दावे ही प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों की चुनावी स्ट्रैटजी का आधार हैं।
आम बिहारी इस बाबत रो-गाकर जो प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है, उसको अगर गुनें तो एक बात समझ आयेगी। इसे उसकी मासूम खुशफहमी या गलफहमी कहकर आप-हम अनसुनी कर सकते हैं, जैसा कि बरसों से होता आया है। लेकिन इतने से कोई गरीब बिहारी अपनी धारणा बदलने से रहा! आज भी उसकी स्वाभाविक व सहज धारणा है कि प्रतिद्वंद्वी दलों-गठबंधनों की वर्तमान चुनावी घोषणाओं का उद्गम गांधी-लोहिया-जेपी जैसों की चिंतनधारा और स्थापनाएं या और स्पष्ट कहें तो कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी राजनेताओं का जमीनी संघर्ष है। इसका मोटा अर्थ यह है कि हमने जिस प्रभुवर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता सौंपी, वे जो कुछ कर रहे हैं या आगे जो कुछ करना चाहते हैं, वह विकराल पूंजीवाद के खिलाफ समाजवादी संघर्ष एवं रचना की ऐतिहासिक धारा या कड़ी हैं। यह सही है कि पार्टी, प्रशासन, लोकतंत्र, सबमें और सब पर निरंकुश और लोकलाजविहीन पूंजीवाद हावी है। फिर भी, लगता है कि वर्तमान शीर्षस्थ राजनीतिक प्रभुओं को उसमें भी ‘समाजवादी प्रबंधन’ के उन सूत्रों की तलाश है, जिनका क्रियान्वयन पूरे बिहारी समाज के हितार्थ संभव है।  
लेकिन तमाम शुभकामनाओं के बावजूद वह बेचारा आम बिहारी प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों के शीर्षस्थ नेतृत्व की स्ट्रैटजी पर सबसे ज्यादा ताली बजानेवाले जाने-पहचाने चेहरों को देख सशंकित है। वह पहचानता है कि ये ताली बजानेवाले पढ़े-लिखे लोग उसकी चेतना को सदियों से पीढ़ी-दर पीढ़ी संचालित और नियंत्रित करते आ रहे बौद्धिक वर्गों के जन्मजात उत्तराधिकारी हैं! ये वर्ग सदियों से हर सत्तापक्ष के लिए ताली बजाने की कला को ज्ञान-विज्ञान के रूप में प्रस्तुत करते आये हैं। वे सत्तापक्ष की जिस स्ट्रैटजी को पहले ‘मेड इन बिहार’ कहते थे, उसे अब ‘मेक इन इंडिया’ कहते हैं, और देखते-देखते पला बदल कर  सत्ताधारी प्रभुवर्ग में शामिल हो जाते हैं। यहां तक कि उनके मुख्य योजनाकार भी बन जाते हैं! इनके बारे में बिहारी जनता बरसों बाद भी बहुत कुछ नहीं जानती, इस अनुभवजनित तथ्य के सिवा कि सिर्फ सत्तापक्ष के लिए ताली बजाने का जो काम आज तक गरीब बिहारी के लिए सबसे कठिन और सबसे महंगा ‘काम’ साबित होता रहा है, वही इन वर्गों के बुद्धि-कौशल और बौद्धिक ताकत का स्रोत है! ये बौद्धिक वर्ग जनता के किसी सिद्धांत को साकार करने के लिए स्ट्रैटजी नहीं बनाते। आम जनता के लिए किसी सिद्धांत को वस्तुनिष्ट आकार देने की स्ट्रैटजी का समर्थन या सहयोग भी तब तक नहीं करते, जब तक उस सिद्धांत का वाहक समुदाय या संगठन राजनीतिक सत्ता पर काबिज नही होता! अलबत्ता, ये वर्ग विजयी सत्तापक्ष की किसी भी स्ट्रैटजी को ‘पैराडाइम शिफ्ट’ साबित करने और उसे सैद्धांतिक जामा पहनाने में माहिर हैं!
अब आप ही देखिए न, ये बौद्धिक वर्ग आजकल सड़क-बिजली-पानी की व्यापक व्यवस्था एवं समान वितरण की स्ट्रैटजी को ‘आधारभूत संरचना का क्लास न्यूट्रल सिद्धांत’ साबित करने की कोशिश में पिले पड़े हैं। इनको बौद्धिक-श्रम में पसीना चुआते देख सिर्फ अपने पसीने की कमाई पर जिंदा बिहारी को भी लगने लगा है कि ये लोग महान कार्य कर रहे हैं, यह अवश्य ही सर्वजनहिताय है। सो वर्गीय आधार पर इनके महान-कार्यों के विरोध-अवरोध की किसी तरह की राजनीति उचित नहीं है।

हां, वैसे, अब बिहारी मानस में एक बदलाव साफ दिख रहा है। विकास की बड़ी-बड़ी योजनाओं-परियोजनाओं की घोषणा करनेवाले शीर्ष नेतृत्व के चुनावी मंच पर बिहार जैसे पिछड़े राज्यों को खाने और पचाने में बरसों से सिद्ध प्रभुओं को शामिल देख गरीब से गरीब बिहारी भी अब गुस्साता नहीं। हालांकि अभाव में भी आनंद मनाने की अपनी पुरानी आदत के मारे वह उन पर हंसने से बाज नहीं आता। अब यह हंसी-ठिठोली प्रभु वर्ग को अपने ऊपर प्रहार जैसी लगती है तो वह क्या करे! वह तो पूंजीवादी उदारता की इस चतुराई पर चकित है कि अंतिम व्यक्ति के चेतना-विकास के सिद्धांत-सूत्र से बंधी सड़क-बिजली-पानी जैसी निर्मितियों को ‘वर्ग निरपेक्ष’ करार देकर विकास का सबसे पहले और सबसे ज्यादा उपभोग करनेवाले प्रभुवर्ग को ‘वर्ग विहीन’ सिद्ध किया जा रहा है! सबसे ऊंचे ‘क्लास’ को ‘मास’ बनाया जा रहा है। वाह! यही तो है असली विकास - वर्गरहित समाज निर्माण की बुनियाद! यह समझ ही आम बिहारी में हंसी पैदा करती है। सो वह इन्फ्रास्ट्रक्चरल निर्मितियों के सिलसिले में किये जा रहे चुनावी वादो-दावों को अब ‘लूट और लोभ की नयी स्ट्रैटजी’ कहकर नकारता नहीं। नकारना चाहता भी नहीं। लेकिन वह विकास का वरदान देने को लालायित प्रभुओं पर भरोसा करने के लिए अपने अनुभव से अर्जित इस इतिहास-ज्ञान और समझ को नकारने में समर्थ नहीं हो पा रहा कि उसके जिंदा रहने का अवसर मात्र मुहैया करनेवाली इन निर्मितियों से क्या उसमें अपने भविष्य को संवारने की शक्ति पैदा हो सकती है? ऐतिहासिक तौर पर तो ऐसी निर्मितियां उसे जिंदा रहने के लिए अपनी जमीन से उखड़ने और शक्तिहीन एवं याचक बने रहने को मजबूर करती आयी हैं। क्या 21वीं सदी में उसका यह अनुमान बेबुनियाद साबित होगा कि सड़क-बिजली-पानी के चुनावी वादे लोकतंत्र में मालिक होकर भी याचक बने रहने की उसकी मजबूरी को स्थाइत्व देने की परंपरा का ही आकर्षक विस्तार है? क्या उसकी यह आशंका उसकी मूर्खता का प्रमाण है कि सत्ता पर काबिज होने के लिए आधुनिक प्रभु सड़क-बिजली-पानी की निर्मितियों को ‘क्लास न्यूट्रल’ करार देकर पूंजीवाद की प्रचलित ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ का ही नया पाठ कर रहे हैं?

मुसलमान दलित -- बिहार विधानसभा चुनाव 2015



- हेमन्त


सवाल बहुत छोटा है, लेकिन बरसों से हमारे लोकतांत्रिक देश में सत्ता पर काबिज प्रभुओं का मानस उसका जवाब नहीं ढूंढ पाया है। ह
ालांकि उस सवाल के बहाने सत्ता-राजनीति का चुनावी खेल नये-नये रिकार्ड कायम करता आया है। सवाल है — क्या कोई मुसलमान दलित विधानसभा या लोकसभा में (या पंचायत चुनाव में ही सही) किसी रिजर्व सीट से चुनाव लड़ सकता है? संविधान में धर्म के आधार पर किसी तरह का रिजर्वेशन का प्रावधान नहीं है। इसलिए मुसलमान दलित रिजर्व सीट से चुनाव नहीं लड़ सकता। यह देश के तमाम धार्मिक समुदायों के राजनीतिक प्रभुओं लिए मान्य है! लेकिन सवाल है कि तब देश में निर्धारित एससी सीटों पर सिर्फ हिन्दू दलित ही क्यों खड़ा हो सकता है? आजादी के बरसों बाद ही सही, लम्बी लड़ाई के बाद अब सिख दलित और नवबौद्ध दलितों के लिए अनुसूचित जाति की सुविधाएं प्राप्त हैं — शिक्षा, रोजगार से लेकर राजनीति में विशेष अवसर के लिए आरक्षण मिला। लेकिन मुसलमान और ईसाई दलित अभी भी इससे वंचित हैं।
रंगनाथ मिश्र आयोग ने देश के तमाम धार्मिक समुदायों के शिड्यूल कास्ट के मामले में मजहब की पाबंदी हटाने की सिफारिश की है। उसने माना है कि इस तरह की पाबंदी लगाना मजहब की बुनियाद पर तफरीक करने के बराबर है, जिसकी मनाही भारतीय संविधान करता है। रंगनाथ मिश्र आयोग ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा में मुसलमानों के लिए 10 प्रतिशत और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए 5 प्रतिशत स्थान ‘इयरमार्क’ करने का भी सुझाव दिया है। मगर खुद आयोग को लगता है कि इस सिफारिश को लागू करने में संवैधानिक अड़चनें हैं। इसलिए उसने कहा है कि अगर यह बाधा दूर नहीं की जा सके तो ओबीसी के 27 प्रतिशत आरक्षण में 8.44 प्रतिशत स्थान अल्पसंख्यकों के लिए चिन्हित कर दिया जाना चाहिए।
सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र आयोग, दोनों की रिपोर्ट कहती हैं कि मुस्लिम समाज होमोजेनस नहीं है और मोनोलिथ (एक रूप) भी नहीं है। हिन्दू और अन्य दूसरे समाजों की तरह यह भी जातियों और वर्गों में बंटा है। इसमें एक से बढ़कर एक तरक्कीयाफ्ता लोग हैं, तो पसमांदा और दलित भी हैं। सच्चर कमिटी ने कहा है कि मुसलमान तीन भागों - अशराफ (अगड़ा), अजलाफ (पिछड़ा) और अरजाल (दलित) में बंटे हैं। मुसलमान अरजाल की हालत हिन्दू दलित से भी खराब है। इस तबके के मुसलमानों को शिड्यूल कास्ट का दर्जा और सहूलत मिलनी चाहिए। अगर इन्हें शिड्यूल कास्ट का नाम मुमकिन नहीं है तो भी इन्हें ‘मोस्ट बैकवर्ड’ मानकर दलितों को मिलने वाली सुविधाएं और विशेष अवसर (आरक्षण) मिलनी ही चाहिए। सच्चर कमिटी ने अपने चार सौ से अधिक पेज की रिपोर्ट में कहीं भी सारे ‘मुसलमानों के लिए आरक्षण’ जैसी कोई बात नहीं की है। अलबत्ता आम मुसलमानों की तालीमी माली हालत सुधारने के लिए कई दूसरी अनुशंसाएं की हैं। गौरतलब बात यह है कि इस तरह की किसी उच्चस्तरीय सरकारी समिति ने पहली दफा ‘दलित मुसलमान’ शब्द का इस्तेमाल किया है।
‘सबका साथ सबका विकास’ के नारेबाजी के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज एनडीए के मुख्य प्रचारक, हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने बिहार के चुनावी सभाओं में बिहारी दलितों, महादलितों से लेकर पिछड़ों-अतिपिछड़ों तक के संवैधानिक आरक्षण को हिन्दू आधार पर परिभाषित-विश्लेषित करते हुए उनको आश्वासन दिया है कि इस आरक्षण में धर्म के आधार पर किसी तरह कटौती किये जाने और अन्य किसी गैर हिन्दू को दीये जाने की कोशिश को रोकने के लिए अपनी जान भी देने को तैयार हैं। आश्चर्य है! विकास के नाम पर देश के 125 करोड़ जनता को साथ लेने और सबको साथ देने का आह्वान करनेवाले प्रधानमन्त्री जी को अपनी जान की बाजी लगाने की उक्त घोषणा में कोई खामी नजर नहीं आई! उन्होंने अपनी जान को दाव पर लगाने की घोषणा कर एक झटके से सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोगों की अनुशंसाओं की जान ले ली और गरीब-गुरबे पसमान्दा (पिछड़े-अतिपिछड़े) मुसालमानों और दलित मुसलामानों की उम्मीदों और सपनों के पंख कतर दिए। क्या मोदीजी यह घोषणा गांधी की कर्म भूमि और जेपी की जन्मभूमि बिहार, धार्मिक लेकिन सेक्युलर बिहार, के वासी होने पर गर्व करनेवाले बिहारियों को नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की इस चेतावनी को सही मानने को विवश नहीं करेगी कि मोदी जी और उनकी पार्टी संघ परिवार के सुनियोजित राजनीतिक संस्कृति के चिंतन पर आधारित ध्रुवीकरण की चुनावी रणनीति के जरिये बिहार में ‘फूट डालो और राज करो’ का खेल रचा रही है? अब तो मोदी जी की घोषणा की बाबत भाजपा नीत गठबंधन में शामिल अन्य पार्टियों के स्वनामधन्य पिछड़े-दलित-महादलित नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने अपने विकास-चिंतन में आरक्षण और विशेष अवसर की जिस नीति को मान्य किया है, उसमें अल्पसंख्यक समुदायों के दलितों-पिछड़ों को शामिल करने की सोच को स्थान दिया हुआ है अथवा नहीं? वे हाल-हाल तक सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोगों की अनुशंसाओं को लेकर देश भर में जो राजनीति चला रहे थे, वह क्या था? अपनी ही पार्टी के समर्थक विविध धर्मों-सम्प्रदायों के गरीब-गुरबों को मूर्ख समझने का राजनीतिक खेल या मूर्ख बनाने की राजनीतिक साजिश? वैसे, बिहार के लोग सुनते आ रहे हैं कि सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोगों की अनुशंसाओं की बाबत नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का स्टैंड पहले से ही सकारात्मक और स्पष्ट है। फिर भी वर्तमान बिहार विधानसभा चुनाव-2015 के वक्त चुनाव आयोग की आचार संहिता की मर्यादाओं का पालन करते हुए उन्हें अपना स्टैंड बिहार सहित पूरे देश के समक्ष फिर से रखना चाहिए। क्योंकि बिहार ने गत लोकसभा में यह सोचकर वोट दिया था कि देश का विकास होगा, तो बिहार का विकास होगा। विधानसभा चुनाव में वह यह सोचकर वोट करना चाहता था कि बिहार का विकास होगा, तभी देश का विकास होगा। लेकिन वर्तमान चुनाव ‘पीएम बनाम सीएम’ की धुरी पर जिस तरह से लड़ा जा रहा है, उसमें बिहार की अस्मिता और विविधता में एकता की पहचान, जिसे 21वीं सदी में बिहारीपन के रूप में विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं, को ही चुनौती दी जा रही है। इसलिए बिहार का हर बिहारी वोटर अब यह समझ लेकर ही वोट देगा कि अबकी अगर ‘गरीब-पिछड़ा बिहारी हारेगा, तो देश का गरीब-पिछड़ा भारतीय हारेगा।’

अकेली लड़की


वह लड़की अकेली थी

वह युवा थी
उसकी आँखें धारदार थीं 
वह बहस कर रही थी
उसके स्वर सधे थे
वह सफर कर रही थी 
वह अकेली शहर जा रही थी
परिवार से दूर राजधानी 
कई कई सवालों के उत्तर दे रही थी
संविधान की धाराओं से
सरकार को घेर रही थी
वह दिल्ली जा रही थी

उसका लिवास सादा था
लेकिन उसके सपनों का रंग था
वह लड़ नहीं रही थी 
वह घबरा नहीं रही थी 
इत्मिनान से समझा रही थी

वह बच्चों के साथ खेल रही थी
वह बूढ़ों की मदद कर रही थी
उन्हें स्मार्ट फोन की 
बारीकियाँ समझा रही थी 
वह राँची से दिल्ली जा रही थी ।

                               -आशुतोष

Friday, October 23, 2015

भये कबीर कबीर

    


      बहुत बढ़िया किताब है भये कबीर कबीर ।शुकदेव सिंह की यह अद्भुत पुस्तक है।यह एक अध्येता की दिल से लिखी किताब है ।अच्छा लग रहा है।कभी -कभी मुग्ध हो जाता हूँ ।2005 में यह किताब काशी के विश्वविद्यालय प्रकाशन से छपकर आई है।
अवसर मिला, तो अपनी राय रखूँगा।

Wednesday, October 21, 2015

लहक में योगेन्द्र का कविता क्या है पर आलेख





'कविता क्या है' निबंध लिखना स्वयं आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लिए एक चुनौती थी।उन्हे इस निबंध को तीन बार लिखना पड़ा।1909,1922 और 1930 में।हिन्दी के विद्यार्थियों को यह निबंध पढ़ना पड़ता है।शिक्षकों को भी पढ़ाना पड़ता है।जब हिन्दी में निबंध की विधा अभी अपने शैशव की सीमा-रेखा पार कर रही थी,उसी समय आचार्य शुक्ल का यह गंभीर निबंध प्रकाशित हुआ।हिन्दी में साहित्यिक अवधारणाएं या तो संस्कृत साहित्य से या अँग्रेजी के माध्यम से पश्चिम से आ रही थी।शुक्ल जी उन विचारों को अपने अनुभवों और पर्यवेक्षणों के आधार पर अपने समय के अनुरूप देशी रूप दे रहे थे।
प्रकृति और मनुष्य के बीच आदर,भय और प्रेम का रिश्ता रहा है।रूप और अनुभव या भाव के बीच भी द्वंद्वात्मक संबंध हैं।कविता में ये सभी चुनौती की तरह पेश आते हैं।हिन्दी के सुधी आलोचक आचार्य शुक्ल के इस निबंध को विश्लेषित-संश्लेषित करने का दायित्व निभाने का प्रयास किया है।
लहक पत्रिका के अगस्त-सितंबर अंक में डॉ.योगेन्द्र का इसी विषय पर एक आलोचनात्मक आलेख प्रकाशित हुआ है।लेखक ने इस कठिन विषय पर सहज-सरल शैली में विचार किया है।इसमें उसके लंबे सामाजिक जीवन के अनुभव भी शामिल हैं।
योगेन्द्र के लेखन में कुछ सुखद बदलाव दिख रहे हैं।बहुत धैर्य से वे अपनी बातों को रखते हैं,थोपते नहीं हैं।अपने पाठकों को सोचने का अवकाश देना लेखन का लोकतांत्रिक तरीका है।लेखक का पूरा मिजाज इस लेख में लोकतांत्रिक है।इसके लिए लेखक को बधाई।
यदि आज की कविताओं को भी इस आलेख का हिस्सा बनाया जा सकता,तो और बेहतर होता,क्योंकि सभ्यता का आवरण और मोटा हुआ है।हम तो पाठक हैं,लेखकों से हमारी अपेक्षाएं भी रहेंगी।फिर से लेखक को धन्यवाद।