Monday, July 7, 2008

जो पुल बनायेंगे

जो पुल बनायेंगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जायेंगे।
सेनायें हो जायेंगी पार
मारे जायेंगे रावण
जयी होंगे राम;
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलायेंगे
-अज्ञेय

6 comments:

Priyankar said...

जबर्दस्त कविता है . इतिहास में यही होता आया है. सर्जकों और निर्माताओं को कौन याद रखता है.विजेताओं की दुंदुभी बजती रहती है .

संगति said...

कमाल है आप भी उन लोगों में शामिल हो गये जिन्हें यह अहसास होने लगता है कि अब उन्हें कोई सुन नहीं रहा । जिन्हें आप सुना रहे हों और वे आप को अनसुना कर रहें हों और आप इस स्थिति में जब असहाय हों तो ब्लाग के सिवा जाना कहां ?
मृत्युंजय

Priyankar said...

यह संगत की विसंगति है या संगति की ?

संगति said...

प्रिय आशुतोष,
आपने सही कहा अभी आप फुरसत में नहीं हैं अभी आप काम के दबाव में हैं इसलिए आप अपने ब्लाग पर कुछ लिख नहीं सकते उचित कहा आपने ब्लाग फुरसत का साथी ही हो सकता है जब काम से फुरसत हो तो ब्लाग खेला जाए खेल भी सुडोकू जैसा नहीं
मुझे अपने मामा जी की याद आ रही है मामाजी ताश के बहुत शोकीन थे वैसे ही जैसे कुछ लोग भाषण देने या जुमला बोलने के शोकीन होते हैं मामाजी रेलवे में गार्ड थे ट्रेन लेकर जाते थे लौट कर वे घर नहीं आते थे ट्रेन से उतर कर सीधे अपने उस क्लब में जाते थे जहां वे रात-रात भर ताश खेलते थे कई बार तो ऎसा होत था कि वे सीधे ड्युटी पर चले जाते थे लेकिन धीरे-धीरे महफिल उजड़्ती गई वे साथी बिखर गए जिनके साथ खेला करते थे वे ताश मामाजी ने तब ताश का एक ऎसा खेल सीखा जिसे वे अकेला खेल सकते थे और वे इस खेल को मजे ले-लेकर खेलते रहे ब्लाग जैसे ही जिनकी महफिल बिखर गई हो साथी का छूट गया या छूट रहे हों उनके लिए ब्लाग माकूल है अभी अलविदा कुछ काम याद आ गया
मृत्युंजय

Priyankar said...

प्रिय आशुतोष,

कोई दुखती रग दब गई क्या ?

jitendra srivastava said...

badhai.
jitendra srivastava