Tuesday, July 8, 2008

तीन दोहे

हैं अवाक सब बोलियाँ,खुले होंठ निस्तब्ध

कवि जी पकड़ो जोर से,उड़े जा रहे शब्द।



कलम छोड़ दो मेज़ पर,कागज रख दो द्वार

सारी दुनिया जा रही,कवि जी चलो बाज़ार।



श्रोता कब के उठ गये,पाठक चले विदेश

कवि जी आओ घर चलें,रैन भई एहि देश।

-केदारनाथ सिंह

2 comments:

Priyankar said...

जब उल्टी बयार चल रही हो तो कवि जी भी बेचारे क्या करें .

jasvir saurana said...

sundar. ati uttam.