Wednesday, March 17, 2010

नाच

अज्ञेय

एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।

जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूं

वह दो खम्भों के बीच है।

वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।

दो खम्भॊं के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ

उस पर तीखी रोशनी पड़ती है

जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।

परमैं जोनाचता हूँ

जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ

जो जिस खम्भों के बीच है

जिस पर जो रोशनी पड़ती है

उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर

असल में मैं नाचता नहीं हूँ।

मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ

कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ

कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये—

पर तनाव ढीलता नहीं

मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ

पर तनाव वैसा बना ही रहता है

सब कुछ वैसा ही बना रहता है।

और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं

मुझे नहीं

रस्सी को नहीं

खम्भे नहीं

रोशनी नहीं

तनाव भी नहीं

देखते हैं — नाच!

Tuesday, March 9, 2010

राममनोहर लोहिया

नर चाहता है कि नारी अच्छी भी हो, बुद्धिमान हो,चतुर हो,तेज हो,और उसकी हो,उसके कब्जे में हो।ये दोनों भावनायें परस्पर विरोधी हैं।अपनी किसको बना सकते हो?उस मानी में अपनी,जो हमारे कब्जे में रहे।मेज को अपनी बना सकते हो,कमरे को बना सकते हो,किसी हद तक।बिल्ली भीमुश्किल होगी।बिल्ली कुछ और है।यानी निर्जीव यासजीव भी,तो किसी ऐसे को ही बना सकते हो,जिसकी सजीवता सम्पूर्ण है,उसको अगर अपने अधीनस्थ बना देना चाहते हो तो फिर वह चपल,चतुर,सचेत,सजीव—उस अर्थ में,जीव वाले अर्थ में नहीं—जिन्दादिल जिन्दा शरीर,तेज और बुद्धिमान नहीं हो सकती।या तो औरत को बनाओ परतंत्र,तब मोह छोड़ दो औरतों को बढ़िया बनाने का।या फिर बनाओ उसको स्वतंत्र। तब वह बढ़िया होगी;इसलिये एक या दूसरी भावना को अपनाना पड़ेगा।किस भावना को आप अपनाओ,यह आप का काम है,लेकिन मैं खाली इतना कह देता हूँ कि उस कब्जे वाली,लेकिन मुर्दा चीज से तो कोई खास मतलब होता नहीं। चुलबुला कब्जा असंभव है।निर्जीव कब्जा बेमजा है।नर और नारी का स्नेहमय सम्बन्ध बराबरी की नींव पर ही हो सकता है।ऐसा सम्बन्ध कोई भी समाज अब तक नहीं जान पाया।

Monday, March 8, 2010

दुपहरिया

-केदारनाथ सिंह

झरने लगे नीम के पत्ते,बढ़ने लगी उदासी मन की,

उड़ने लगी बुझे खेतों से

झुर-झुर सरसों की रंगीनी,

धुसर धूप हुई, मन पर ज्यों –

सुधियों की चादर अनबीनी,

दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गयी प्रगति जीवन की ।

साँस रोक कर खड़े हो गये

लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,

चिलबिल की नंगी बाँहों में

भरने लगा एक खोयापन,

बड़ी हो गयी कटु कानों को’चुर-मुर’ ध्वनि बाँसों के वन की ।

थक कर ठहर गयी दुपहरिया,

रुक कर सहम गयी चौवाई,

आँखों के इस वीराने में—

और चमकने लगी रुखाई,

प्रान,आ गये दर्दीले दिन, बीत गयीं रातें ठिठुरन की