Wednesday, March 17, 2010

नाच

अज्ञेय

एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।

जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूं

वह दो खम्भों के बीच है।

वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।

दो खम्भॊं के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ

उस पर तीखी रोशनी पड़ती है

जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।

परमैं जोनाचता हूँ

जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ

जो जिस खम्भों के बीच है

जिस पर जो रोशनी पड़ती है

उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर

असल में मैं नाचता नहीं हूँ।

मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ

कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ

कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये—

पर तनाव ढीलता नहीं

मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ

पर तनाव वैसा बना ही रहता है

सब कुछ वैसा ही बना रहता है।

और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं

मुझे नहीं

रस्सी को नहीं

खम्भे नहीं

रोशनी नहीं

तनाव भी नहीं

देखते हैं — नाच!

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