Monday, March 8, 2010

दुपहरिया

-केदारनाथ सिंह

झरने लगे नीम के पत्ते,बढ़ने लगी उदासी मन की,

उड़ने लगी बुझे खेतों से

झुर-झुर सरसों की रंगीनी,

धुसर धूप हुई, मन पर ज्यों –

सुधियों की चादर अनबीनी,

दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गयी प्रगति जीवन की ।

साँस रोक कर खड़े हो गये

लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,

चिलबिल की नंगी बाँहों में

भरने लगा एक खोयापन,

बड़ी हो गयी कटु कानों को’चुर-मुर’ ध्वनि बाँसों के वन की ।

थक कर ठहर गयी दुपहरिया,

रुक कर सहम गयी चौवाई,

आँखों के इस वीराने में—

और चमकने लगी रुखाई,

प्रान,आ गये दर्दीले दिन, बीत गयीं रातें ठिठुरन की

1 comment:

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी said...

केदारजी की सुंदर कविता दी है,बधाई।