- हेमन्त
सवाल बहुत छोटा है, लेकिन बरसों से हमारे लोकतांत्रिक देश में सत्ता पर काबिज प्रभुओं का मानस उसका जवाब नहीं ढूंढ पाया है। हालांकि उस सवाल के बहाने सत्ता-राजनीति का चुनावी खेल नये-नये रिकार्ड कायम करता आया है। सवाल है — क्या कोई मुसलमान दलित विधानसभा या लोकसभा में (या पंचायत चुनाव में ही सही) किसी रिजर्व सीट से चुनाव लड़ सकता है? संविधान में धर्म के आधार पर किसी तरह का रिजर्वेशन का प्रावधान नहीं है। इसलिए मुसलमान दलित रिजर्व सीट से चुनाव नहीं लड़ सकता। यह देश के तमाम धार्मिक समुदायों के राजनीतिक प्रभुओं लिए मान्य है! लेकिन सवाल है कि तब देश में निर्धारित एससी सीटों पर सिर्फ हिन्दू दलित ही क्यों खड़ा हो सकता है? आजादी के बरसों बाद ही सही, लम्बी लड़ाई के बाद अब सिख दलित और नवबौद्ध दलितों के लिए अनुसूचित जाति की सुविधाएं प्राप्त हैं — शिक्षा, रोजगार से लेकर राजनीति में विशेष अवसर के लिए आरक्षण मिला। लेकिन मुसलमान और ईसाई दलित अभी भी इससे वंचित हैं।
रंगनाथ मिश्र आयोग ने देश के तमाम धार्मिक समुदायों के शिड्यूल कास्ट के मामले में मजहब की पाबंदी हटाने की सिफारिश की है। उसने माना है कि इस तरह की पाबंदी लगाना मजहब की बुनियाद पर तफरीक करने के बराबर है, जिसकी मनाही भारतीय संविधान करता है। रंगनाथ मिश्र आयोग ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा में मुसलमानों के लिए 10 प्रतिशत और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए 5 प्रतिशत स्थान ‘इयरमार्क’ करने का भी सुझाव दिया है। मगर खुद आयोग को लगता है कि इस सिफारिश को लागू करने में संवैधानिक अड़चनें हैं। इसलिए उसने कहा है कि अगर यह बाधा दूर नहीं की जा सके तो ओबीसी के 27 प्रतिशत आरक्षण में 8.44 प्रतिशत स्थान अल्पसंख्यकों के लिए चिन्हित कर दिया जाना चाहिए।
सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र आयोग, दोनों की रिपोर्ट कहती हैं कि मुस्लिम समाज होमोजेनस नहीं है और मोनोलिथ (एक रूप) भी नहीं है। हिन्दू और अन्य दूसरे समाजों की तरह यह भी जातियों और वर्गों में बंटा है। इसमें एक से बढ़कर एक तरक्कीयाफ्ता लोग हैं, तो पसमांदा और दलित भी हैं। सच्चर कमिटी ने कहा है कि मुसलमान तीन भागों - अशराफ (अगड़ा), अजलाफ (पिछड़ा) और अरजाल (दलित) में बंटे हैं। मुसलमान अरजाल की हालत हिन्दू दलित से भी खराब है। इस तबके के मुसलमानों को शिड्यूल कास्ट का दर्जा और सहूलत मिलनी चाहिए। अगर इन्हें शिड्यूल कास्ट का नाम मुमकिन नहीं है तो भी इन्हें ‘मोस्ट बैकवर्ड’ मानकर दलितों को मिलने वाली सुविधाएं और विशेष अवसर (आरक्षण) मिलनी ही चाहिए। सच्चर कमिटी ने अपने चार सौ से अधिक पेज की रिपोर्ट में कहीं भी सारे ‘मुसलमानों के लिए आरक्षण’ जैसी कोई बात नहीं की है। अलबत्ता आम मुसलमानों की तालीमी माली हालत सुधारने के लिए कई दूसरी अनुशंसाएं की हैं। गौरतलब बात यह है कि इस तरह की किसी उच्चस्तरीय सरकारी समिति ने पहली दफा ‘दलित मुसलमान’ शब्द का इस्तेमाल किया है।
‘सबका साथ सबका विकास’ के नारेबाजी के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज एनडीए के मुख्य प्रचारक, हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने बिहार के चुनावी सभाओं में बिहारी दलितों, महादलितों से लेकर पिछड़ों-अतिपिछड़ों तक के संवैधानिक आरक्षण को हिन्दू आधार पर परिभाषित-विश्लेषित करते हुए उनको आश्वासन दिया है कि इस आरक्षण में धर्म के आधार पर किसी तरह कटौती किये जाने और अन्य किसी गैर हिन्दू को दीये जाने की कोशिश को रोकने के लिए अपनी जान भी देने को तैयार हैं। आश्चर्य है! विकास के नाम पर देश के 125 करोड़ जनता को साथ लेने और सबको साथ देने का आह्वान करनेवाले प्रधानमन्त्री जी को अपनी जान की बाजी लगाने की उक्त घोषणा में कोई खामी नजर नहीं आई! उन्होंने अपनी जान को दाव पर लगाने की घोषणा कर एक झटके से सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोगों की अनुशंसाओं की जान ले ली और गरीब-गुरबे पसमान्दा (पिछड़े-अतिपिछड़े) मुसालमानों और दलित मुसलामानों की उम्मीदों और सपनों के पंख कतर दिए। क्या मोदीजी यह घोषणा गांधी की कर्म भूमि और जेपी की जन्मभूमि बिहार, धार्मिक लेकिन सेक्युलर बिहार, के वासी होने पर गर्व करनेवाले बिहारियों को नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की इस चेतावनी को सही मानने को विवश नहीं करेगी कि मोदी जी और उनकी पार्टी संघ परिवार के सुनियोजित राजनीतिक संस्कृति के चिंतन पर आधारित ध्रुवीकरण की चुनावी रणनीति के जरिये बिहार में ‘फूट डालो और राज करो’ का खेल रचा रही है? अब तो मोदी जी की घोषणा की बाबत भाजपा नीत गठबंधन में शामिल अन्य पार्टियों के स्वनामधन्य पिछड़े-दलित-महादलित नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने अपने विकास-चिंतन में आरक्षण और विशेष अवसर की जिस नीति को मान्य किया है, उसमें अल्पसंख्यक समुदायों के दलितों-पिछड़ों को शामिल करने की सोच को स्थान दिया हुआ है अथवा नहीं? वे हाल-हाल तक सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोगों की अनुशंसाओं को लेकर देश भर में जो राजनीति चला रहे थे, वह क्या था? अपनी ही पार्टी के समर्थक विविध धर्मों-सम्प्रदायों के गरीब-गुरबों को मूर्ख समझने का राजनीतिक खेल या मूर्ख बनाने की राजनीतिक साजिश? वैसे, बिहार के लोग सुनते आ रहे हैं कि सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोगों की अनुशंसाओं की बाबत नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का स्टैंड पहले से ही सकारात्मक और स्पष्ट है। फिर भी वर्तमान बिहार विधानसभा चुनाव-2015 के वक्त चुनाव आयोग की आचार संहिता की मर्यादाओं का पालन करते हुए उन्हें अपना स्टैंड बिहार सहित पूरे देश के समक्ष फिर से रखना चाहिए। क्योंकि बिहार ने गत लोकसभा में यह सोचकर वोट दिया था कि देश का विकास होगा, तो बिहार का विकास होगा। विधानसभा चुनाव में वह यह सोचकर वोट करना चाहता था कि बिहार का विकास होगा, तभी देश का विकास होगा। लेकिन वर्तमान चुनाव ‘पीएम बनाम सीएम’ की धुरी पर जिस तरह से लड़ा जा रहा है, उसमें बिहार की अस्मिता और विविधता में एकता की पहचान, जिसे 21वीं सदी में बिहारीपन के रूप में विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं, को ही चुनौती दी जा रही है। इसलिए बिहार का हर बिहारी वोटर अब यह समझ लेकर ही वोट देगा कि अबकी अगर ‘गरीब-पिछड़ा बिहारी हारेगा, तो देश का गरीब-पिछड़ा भारतीय हारेगा।’
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