Friday, October 30, 2015

बिहारियत के संदर्भ में बिहार चुनाव और विकास पर हेमन्त की राय:
बिहार विधानसभा चुनाव 2015
विकास का तूफान चाय की प्याली में!
--हेमन्त
(बन्धुओ, यह एक सप्ताह पहले की बात है। दिल्ली से छपने वाले एक अंग्रेजी अखबार के हमारे मित्र ने बिहार चुनाव के बारे में एक अजीब-सा सवाल पूछा – “भाई साहब, आप बताइए तो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब चाय बेचा करते थे, किस में चाय बेचा करते थे? कुल्हड़ में कि कांच के गिलास में या कि प्लास्टिक के ग्लास में?”
सवाल सुनकर मैं चौंका। पूछा – “ ये कैसा सवाल? आपके दिमाग में ऐसा सवाल क्यों कर उठा?”
तब उन्होंने विस्तार से पूरी बात बताई। उन्होंने बताया – “अरे भाई जी, आप जानते हैं, मैं आज ही पटना पहुंचा। बिहार विधानसभा चुनाव के तीसरे चरण का मतदान कवर करने के लिए। मैंने पटना स्टेशन पर ही भीड़-भाड़ के बीच एक बुजुर्ग ग्रामीण को किसी युवक से कुछ बतियाते देखा। मैं रुक गया। भीड़-भाड़ में उस बूढ़े की पूरी बात तो सुन नहीं सका। सिर्फ कुछ-कुछ वाक्य और शब्द कान में पड़े। उससे मैंने अनुमान लगाया कि वह बूढ़ा शायद ऐसा ही कुछ कह रहा था – ‘...बचवा, हम सुने हैं कि हमरे देस के परधानमंतरी नरेंदर मोदी जी भी कभी चाय बेचते थे। तुमको पता है, वो कब ...कितने समय तकले चाय बेचते रहे? उमरिया के हिसाब से तो बुझाता है, हमरी और उनकी उमर करीब-करीब बराबरे है। ...हम तो आज भी चाये बेचते हैं...।’ अगर अंतिम वाक्य ठीक-ठीक और पूरा न सुनता, तो मैं इस सब को अनुमान मानकर चुप रहता, आपसे न कहता, न पूछता। उस बूढ़े का अंतिम वाक्य यह था – ‘...नरेंदर मोदी जी चयवा बेचते थे, तो गाहक को किसमें चाय देते थे - कुल्हड़ में कि गिलसवा में?’”
मैं समझ गया। मैंने हंसते हुए पूछा – “तो बूढ़े के सवाल पर युवक ने क्या कहा?”
पत्रकार ने कहा – “अरे भाई साहब, मैंने देखा, बूढ़े का सवाल सुनकर वह युवक हंसता रह गया और चुपचाप आगे बढ़ गया। उसे कोई जवाब देते मैंने देखा नहीं। इसीलिए आप से पूछ रहा हूं।”
तब मैंने कहा – “आप कुल्हड़ से परिचित हैं न?”
उन्होंने कहा – “हां।” तब मैंने कहा – “असल सवाल उसी कुल्हड़ में समाया है। बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह बताते हुए कि वे पहले रेल में चाय बेचते थे, बिहार में सत्ता पर कब्जा के लिए में विकास का वैसा ही तूफान उठाना चाहते हैं, जैसा कि उन्होंने 16 महीने दिल्ली (केंद्र) पर कब्जा के लिए उठाया था। सो आज बिहार के आम जन-मन में यह बहस का विषय है कि मोदी जी के विकास के इस तूफान को वर्ष 2004 के उस ‘कुल्हड़ में तूफान’ के विरोध का प्रमाण क्यों न माना जाए, जिसे तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद जी ने उठाया था? संभवतः बुजुर्ग के सवाल का संकेत यही है कि बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में बिहारी मानस इस बहस से गुजरते हुए अपने मताधिकार का प्रयोग कर रहा है।” यह कहते हुए मैंने पत्रकार मित्र को मैंने 2012 में प्रकाशित किताब ‘बिहार एक खोज’ के एक आलेख ‘विकास के तूफान में’ को दोबारा पढ़ने का अनुरोध किया। और, यहां उसी आलेख के कुछ अंश पेश करने का दुस्साहस कर रहा हूं।)
...21वीं सदी में एक ‘विकास का तूफान’ उठा। वर्ष 2004 में। वह तूफान चाय के कुल्हड़ में उठा था और पूरे देश में वह चल निकला था। इसके पहले तक कई तूफान अंग्रेजी मुहावरे – ‘स्टॉर्म इन ए टी कप’ - में सिमटा रह जाते थे। लेकिन जब तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद ने कुल्हड़ में चाय बेचने का फरमान जारी किया, तब से सिर्फ बिहार नहीं, बल्कि ‘भारत’ सहित ‘इंडिया’ के बौद्धिक जगत में यह तूफान असर करने लगा। पहले ‘इंडिया’ के चाय के लिए भी ‘भारत’ का हिंदी पट्टी - काऊ बेल्ट - ही अधिकांश ‘दूध’ की आपूर्ति करता था, लेकिन अंग्रेजी प्याली में उठनेवाले तूफानों से देश का बौद्धिक जगत गाफिल रहता था। जब मिट्टी के कुल्हड़ ‘इको फ्रेंडली’ सिस्टम और 21वीं सदी के ‘जॉबलेस फ्यूचर’ में एंप्लॉयमेंट जेनरेशन का सबसे बढि़या साधन माने जाने लगे, तब से मुंबई के दलाल स्ट्रीट में होनेवाले सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव की तरह ‘कुल्हड़ में तूफान’ पूरे भारत में हलचल मचा गया। 21वीं सदी के इस तूफान की खास बात यह रही कि इसका केंद्र बिहार में नहीं, बल्कि ‘बिहार’ इसका केंद्र रहा - बिहार में केंद्र नहीं, बिहार ही केंद्र! तबसे पेड़ से टूटकर दूर-दूर तक फिजाओं में खुशबू बिखेरनेवाले ताजा हरे पत्तों की तरह ‘बिहारी अस्मिता की पहचान और विकास’ की चर्चाएं देश भर में चल पड़ीं। आम लोगों की ‘भाखा’ में चरचा और खास लोगों की ‘भाषा’ में विमर्श!
बहरहाल, बिहारी अस्मिता से जुड़ी वह हरी-हरी चर्चा न सिर्फ पहचान की थी और न ही सिर्फ विकास की। चर्चा थी पहचान बनाम विकास की! एक साल बाद ही विधानसभा चुनाव में जीत के बाद ‘सुशासन बाबू’ नीतीश जी ने बिहार की सत्ता संभाली, तो उक्त चर्चा का शीर्षक बदल गया। कहिए कि बहस-विमर्श का मुहावरा ही बदल गया। क्योंकि तब से चर्चा शुरू हुई ‘पहचान के साथ विकास की’। पढ़े-लिखों की भाषा में यह बिहार के आम राजनीतिक-सांस्कृतिक चिंतन में ‘पराडाइम शिफ्ट’ का संकेत था। सो इस चरचा में बिहार में रहनेवाला आम गरीब-गुरबा - बीमारू लेकिन जुझारू (!) बिहारी से लेकर रोटी-दाल के जोगाड़ के लिए बिहार से बाहर जानेवाला – ‘गाली’ खाते हुए हर छठ-छमाही पर ‘हंसी-खुशी’ घर लौटनेवाला - आम ‘बिहारी’ सहित तमाम खास लोग शामिल हो गये - भाषणजीवी राजनीतिज्ञ, राशनजीवी अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी समाजशास्त्री, अतीतजीवी इतिहासकार, मसिजीवी पत्रकार, निराकार सरकार, साकार बेकार सब!
देश के तमाम खास लोगों पर चर्चा का खासा असर भी दिखा। असर माने यह कि उन खास चेहरों पर अजीब सी चिढ़-चिंता, तनाव-खिंचाव, लिप्सा-वैराग्य, विरोध-समर्थन, कुछ नया कर गुजरने का उत्साह और कुछ भी न हो सकने की निराशा आदि-आदि की जलन-तपन साफ दिखने लगी। हर तपता चेहरा सतरंगा, लेकिन इंद्रधनुषी नहीं! सूरज में भी सात रंग होते हैं न, लेकिन इस कदर तपता है और तेज घूमता है कि वह अगिन-सफेद नजर आता है! कुछ ऐसी ही थी उन खास चेहरों की रंगत! बिहार में तो सब के सब आमोखास मुखर हो गये। सबने खूब लिखा किया, खूब बोला किया, खूब बतियाया भी। वह भी ऐसे-वैसे नहीं। कोई बिहारीपन की थ्योरी बांचने लगा। कोई बिहार के विकास पर थ्योरी ‘भांजने’ लगा! कोई बिहार में उत्पादित विचार से लेकर सामान तक को ‘मेड इन बिहार’ (तब के मेड इन इंडिया और आज के मेक इन इंडिया से अलग!) के ब्रांड नेम से बाहर के राजनीति के बाजार से लेकर बाजार की राजनीति तक में कंपीट करने की रणनीति पर विचार करने लगा। और, कोई बाहर व्याप्त ‘बिहार सिंड्रोम’ का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए उस बिहारीपन की तलाश करने लगा, जो ताकत का बोध कराये।
तब से यह साफ दिखने लगा कि कल तक ‘बिहार और बिहारी’ से जुड़ी जो बात-बहस ‘गैरों की महफिल’ में महज ‘वल्गर’ मजा और मजाक का सामां बनती थी, वह अपने आप में इतनी ‘बलगर’ (शक्तिशाली) होने लगी कि गैरों को भी गंभीर होने को मजबूर करे। इधर अस्तित्व और अस्मिता जैसे शब्द भी, जो पहले आदतन कोल्ड कॉफी पीनेवालों के कप से उठनेवाला ठंडा और निर्गुण धुआं जैसा लगते थे, अब कुल्हड़ की गर्म चाय का गर्मागर्म और सगुण धुआं बन गये।
इसका नतीजा वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में साफ दिखा। तब से देश के आम भारतीय भी बिहार के विकास के लिए बिहारी की पहचान और विकास की बहस को ‘अस्तित्व और अस्मिता’ जैसी शब्दावली में ढालने की कोशिशों को जरूरी मान कर उसे गंभीरता से ग्रहण करने लगे। इधर बिहारी आम बिहारी यह समझने की कोशिश करने लगा कि बिहार की पहचान और विकास का मामला कहां अटका है, विकास के लिए उसकी कौन सी पहचान अवरोधक है और अपनी पहचान के लिए वह विकास का कौन-सा रास्ता चुने? अस्मिता से संबंधित कौन से ऐसे सैद्धांतिक सवाल हैं, जिन पर विचार किये बिना विकास के नाम पर पेश किये जा रहे व्यावहारिक जवाब उसके मूल अस्तित्व को बेमानी करते हैं?
और, यह नजर आने लगा कि बिहारी मानस बिहार के विकास के मार्ग पर पड़े इस स्वनिर्मित अवरोध को पहचानने लगा है कि वह (बिहारी मानस) आज तक अपनी राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान अक्षुण्ण रखने के लिए अपनी जातीय (जातिगत नहीं) अस्मिता पर अपने स्वामित्व-बोध को त्यागता आ रहा था। अब इस त्याग के मोह से मुक्त होना जरूरी है। यानी बिहारी अस्मिता में ‘ओनरशिप’ का बोध आकार लेने लगा है।
लेकिन अगले दो-तीन साल में ही बिहारी मानस इस वास्तविकता को पहचानने लगा कि दिल्ली (केंद्र) में जहां सामाजिक न्याय के बिना आर्थिक विकास की रफ्रतार तेज करने की सत्ता-राजनीति का जोर बदस्तूर कायम है, वहीं बिहार में आर्थिक विकास की अपनी किसी कारगर रणनीति के अभाव में सामाजिक न्याय का राजनीतिक संघर्ष पस्त हो रहा है। वह इस आशंका से ग्रस्त होने लगा कि अपने अस्तित्व रक्षा के लिए वह जिस बिहारी अस्मिता की प्रभुत्वशील पहचान गढ़ रहा है, वह पहचान पहले की तरह केंद्र पर काबिज या काबिज होने को आतुर प्रभुओं के लिए बिहार की सत्ता-राजनीति पर कब्जा करने या काबिज रहने का हथकंडा मात्र बन जाएगा।
वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ, तो बिहारी मानस को यह खतरा महसूस होने लगा कि उसका बिहारीपन पूरे बिहार की सृजनशील सामाजिक ताकत की बजाय ‘बांटो और राज करो’ की खंडित राजनीति चलाने के लिए प्रभुवर्ग की लाठी बन जाएगा! क्योंकि उसी वक्त केंद्र की सत्ता-राजनीति पर अपने वर्चस्व के लिए बिहार में जाति की सीमाओं में बंधे अगड़े और पिछड़े नेतृत्व, दोनों के चेहरे एक जैसे नजर आने लगे।
और, अब बिहार विधानसभा चुनाव-2015 में ‘सीएम बनाम पीएम’ की धुरी पर जो संघर्ष चल रहा है, उससे बिहारी मानस की आशंका और सवाल ठोस और साकार नजर आने लगे हैं। वैसे, इस नजारे का एक स्पष्ट मायने यह है कि बिहार संक्रमण के दौर में पहुंच गया है। अब बिहारी अस्मिता बहस के दायरे में आ गयी है। उसमें यह एहसास मुखर है कि उसे किसी बाहरी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए नहीं, बल्कि अपने बिहारी मानस को संपूर्णता में खुद पहचानने के निर्मम रास्तों से गुजरना होगा। इन रास्तों पर सवालों के कांटे ज्यादा हैं, जवाब के फूल-फल नहीं।
बहरहाल, बिहार के विकास के लिए बिहारीपन की ठोस पहचान को जरूरी माननेवाले लोग इस नग्न वास्तविकता से नजर नहीं चुराना चाहते कि अस्मिता का प्रश्न विशेष रूप से विचारधारा और राजनीतिक रणीनति का निर्णायक प्रश्न बनता जा रहा है। धर्म, वर्ण आदि विभेदों पर केंद्रित होकर एक अस्मिता को दूसरी अस्मिता के प्रतिपक्ष में खड़ा किया जा रहा है। अस्मिता का प्रश्न समदृष्टि की अपेक्षा विद्वेष पर आधारित हो रहा है, जिसके कारण असहिष्णुता सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्य बनती जा रही है। अस्मिता की जातिगत-साम्प्रदायिक व्याख्याओं में कभी अतीत को वर्तमान से और कभी वर्तमान को अतीत से व्याख्यायित करके उसे अपने तात्कालिक एजेंडे के अनुकूल प्रस्तुत किया जा रहा है।
हालांकि इस नग्न वास्तविकता को स्वीकार करते हुए भी बिहार के विकास के लिए अस्मिता की नयी जमीन की तलाश में लगे ‘बिहारी’ लोग देश के चिंतनरत विद्वानों की इस आशावादिता को स्वीकार करना चाहते हैं कि “अतीत और इतिहास तथा स्मृतियां उस समय तक ही जीवंत और शक्तिदायक बनी रहती हैं, जब तक वे भविष्योन्मुख होती हैं। अतः हमें इस बात पर विचार करना होगा कि एक बहुसांस्कृतिक संसार में अस्मिता का सहअस्तित्व किस प्रकार समानताओं की तलाश में रचनात्मक तथा सृजनात्मक प्रक्रिया को तीव्र करता है।”

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