Wednesday, October 28, 2015

कास्ट, क्लास और मास के बीच रास्ते की तलाश



- हेमन्त


(बन्धुओ, मैं अपना यह लेख ‘कास्ट, क्लास और मास के बीच रास्ते की तलाश’ फेसबुक में दर्ज करने के पहले बिहार में चल रहे वर्तमान चुनावी दंगल से जुड़ा एक वाकया सुनाना चाहता हूं। यह दिलचस्प वाकया कोलकता से छपने वाले एक बांग्ला अखबार के हमारे बंगाली मित्र ने फोन पर कह सुनाया। वह हिन्दी में बोल-बतिया रहे थे। उनके बंगाली टोन में पगी हिन्दी बोली-बानी को मैं यूं चख रहा था जैसे बंगाल का मिष्टी रॅसोगुल्ला!
मैं उनकी बातों को उनकी ही हिन्दी में आपको सुनाऊं, यह यहां संभव नहीं। अंग्रेजी की नकल करने में अपनी पूरी ताकत खर्च कर चुकी मेरी हिन्दी पत्रकारिता अब क्या खाक मुसलमां होगी! खैर। उन्होंने फोन पर हंसते हुए जो कुछ सुनाया, उसका आशय यह था : उन्होंने पहले देसी मीडिया की वर्तमान समझ के मुताबिक बताया कि “इस बार भी चुनाव परिणामों में जाति का जोर दिखेगा। लेकिन फिलहाल यह जाहिर हो गया है कि हर जाति के अंदर का जातिवादी नेतृत्व धोखे की आशंका से ग्रस्त है। जाति के आधार पर पार्टियों एवं गठबंधनों की चुनावी सीमा-संभावनाओं का आकलन करनेवाली मीडिया-प्रजाति भी पसोपेश में है। पिछले चुनावों का यह आम अनुभव रहा है कि बिहारी मतदाता कभी ‘जात’ के नाम पर ‘साधु जनप्रतिनिधि’ पाने की अपनी अपेक्षा व आदर्श को लुटता देखता रहा है। कभी जात की सीमाओं को तोड़कर जनप्रतिनिधियों को चुनने की कोशिश की भी तो ‘जात से भी गया और भात से भी।’ बिहार के चुनावी राजनीति के खेल में मुख्य प्रतिद्वंद्वी दलों का नंगापन यहीं से शुरू होता रहा है और इसी नंगई पर पहुंचता रहा है। ...ये तो खुला यथार्थ है, बिहार का समाज जात में बंटा है। जातिगत विषमताओं से ग्रस्त है। उसकी आर्थिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियां इस विषमता की साक्षी हैं। लेकिन इस विषमता के अंदर का सच यह है कि अक्सर पीडि़त व्यक्ति अपनी कमजोरी को ही अपने अस्तित्व का आधार बना लेता है। जिसे वह जहर मानता है, उसके अमृत होने की आशा में दूसरों के हाथों ग्रहण कर लेता है। लेकिन मुझे लगता है, इस बार का परिदृश्य कुछ बदला-बदला सा है। हालांकि क्या बदल रहा है, यह ठीक-ठीक पकड़ में नहीं आ रहा, जबकि मैं पिछले एक महीने से बिहार में डेरा डाले हुए हूं। हां, सप्ताह-दस दिन पहले एक घटना हुई। उससे कुछ-कुछ समझ में आया कि बिहार बदलाव के किस करवट उठने की कोशिश में है। हुआ यह कि एक नेताजी वोट मांगने स्वजातीय गांव गये और वहां अपनी जात के मंच से इलाके की गैरजात जनता तक आवाज पहुंचाई – ‘भाइयो, हम सब बिहारी हैं। हमें गर्व है कि हम बिहारी हैं। वोट देते वक्त याद रखिएगा - मैं भी बिहारी हूं।’ मैंने नेताजी के एक समर्थक से पूछा – ‘भई, आपके नेताजी को ऐसा क्यों कहना पड़ रहा है कि वह भी बिहारी हैं?’ तो  उसने कहा – ‘भाई साहब, आप बाहर के पत्तरकार हैं। आप से का छिपाना। मेरी जातवालों ने नेताजी से कहा कि अकेले हमारे भोट से वह जीत नहीं सकते। और, जात भाइयों का भोट का जोगाड़ कीजिए। नहीं तो अबकी हमलोग अपना भोट आपको देकर बेकार नहीं करेंगे।’)
 बिहार विधानसभा चुनाव-2015 के लिए जारी प्रचार अभियान में दिल्ली से लेकर पटना तक के प्रभु वर्ग की ओर से बिहार के अंतिम आदमी की चेतना में ‘विकास’ के मायने को तीन कारकों में रूपायित किया जा रहा है - सड़क, बिजली और पानी। फिलहाल इन तीन चीजों के निर्माण और उसके समान एवं न्यायसंगत वितरण के वादे और दावे ही प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों की चुनावी स्ट्रैटजी का आधार हैं।
आम बिहारी इस बाबत रो-गाकर जो प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है, उसको अगर गुनें तो एक बात समझ आयेगी। इसे उसकी मासूम खुशफहमी या गलफहमी कहकर आप-हम अनसुनी कर सकते हैं, जैसा कि बरसों से होता आया है। लेकिन इतने से कोई गरीब बिहारी अपनी धारणा बदलने से रहा! आज भी उसकी स्वाभाविक व सहज धारणा है कि प्रतिद्वंद्वी दलों-गठबंधनों की वर्तमान चुनावी घोषणाओं का उद्गम गांधी-लोहिया-जेपी जैसों की चिंतनधारा और स्थापनाएं या और स्पष्ट कहें तो कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी राजनेताओं का जमीनी संघर्ष है। इसका मोटा अर्थ यह है कि हमने जिस प्रभुवर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता सौंपी, वे जो कुछ कर रहे हैं या आगे जो कुछ करना चाहते हैं, वह विकराल पूंजीवाद के खिलाफ समाजवादी संघर्ष एवं रचना की ऐतिहासिक धारा या कड़ी हैं। यह सही है कि पार्टी, प्रशासन, लोकतंत्र, सबमें और सब पर निरंकुश और लोकलाजविहीन पूंजीवाद हावी है। फिर भी, लगता है कि वर्तमान शीर्षस्थ राजनीतिक प्रभुओं को उसमें भी ‘समाजवादी प्रबंधन’ के उन सूत्रों की तलाश है, जिनका क्रियान्वयन पूरे बिहारी समाज के हितार्थ संभव है।  
लेकिन तमाम शुभकामनाओं के बावजूद वह बेचारा आम बिहारी प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों के शीर्षस्थ नेतृत्व की स्ट्रैटजी पर सबसे ज्यादा ताली बजानेवाले जाने-पहचाने चेहरों को देख सशंकित है। वह पहचानता है कि ये ताली बजानेवाले पढ़े-लिखे लोग उसकी चेतना को सदियों से पीढ़ी-दर पीढ़ी संचालित और नियंत्रित करते आ रहे बौद्धिक वर्गों के जन्मजात उत्तराधिकारी हैं! ये वर्ग सदियों से हर सत्तापक्ष के लिए ताली बजाने की कला को ज्ञान-विज्ञान के रूप में प्रस्तुत करते आये हैं। वे सत्तापक्ष की जिस स्ट्रैटजी को पहले ‘मेड इन बिहार’ कहते थे, उसे अब ‘मेक इन इंडिया’ कहते हैं, और देखते-देखते पला बदल कर  सत्ताधारी प्रभुवर्ग में शामिल हो जाते हैं। यहां तक कि उनके मुख्य योजनाकार भी बन जाते हैं! इनके बारे में बिहारी जनता बरसों बाद भी बहुत कुछ नहीं जानती, इस अनुभवजनित तथ्य के सिवा कि सिर्फ सत्तापक्ष के लिए ताली बजाने का जो काम आज तक गरीब बिहारी के लिए सबसे कठिन और सबसे महंगा ‘काम’ साबित होता रहा है, वही इन वर्गों के बुद्धि-कौशल और बौद्धिक ताकत का स्रोत है! ये बौद्धिक वर्ग जनता के किसी सिद्धांत को साकार करने के लिए स्ट्रैटजी नहीं बनाते। आम जनता के लिए किसी सिद्धांत को वस्तुनिष्ट आकार देने की स्ट्रैटजी का समर्थन या सहयोग भी तब तक नहीं करते, जब तक उस सिद्धांत का वाहक समुदाय या संगठन राजनीतिक सत्ता पर काबिज नही होता! अलबत्ता, ये वर्ग विजयी सत्तापक्ष की किसी भी स्ट्रैटजी को ‘पैराडाइम शिफ्ट’ साबित करने और उसे सैद्धांतिक जामा पहनाने में माहिर हैं!
अब आप ही देखिए न, ये बौद्धिक वर्ग आजकल सड़क-बिजली-पानी की व्यापक व्यवस्था एवं समान वितरण की स्ट्रैटजी को ‘आधारभूत संरचना का क्लास न्यूट्रल सिद्धांत’ साबित करने की कोशिश में पिले पड़े हैं। इनको बौद्धिक-श्रम में पसीना चुआते देख सिर्फ अपने पसीने की कमाई पर जिंदा बिहारी को भी लगने लगा है कि ये लोग महान कार्य कर रहे हैं, यह अवश्य ही सर्वजनहिताय है। सो वर्गीय आधार पर इनके महान-कार्यों के विरोध-अवरोध की किसी तरह की राजनीति उचित नहीं है।

हां, वैसे, अब बिहारी मानस में एक बदलाव साफ दिख रहा है। विकास की बड़ी-बड़ी योजनाओं-परियोजनाओं की घोषणा करनेवाले शीर्ष नेतृत्व के चुनावी मंच पर बिहार जैसे पिछड़े राज्यों को खाने और पचाने में बरसों से सिद्ध प्रभुओं को शामिल देख गरीब से गरीब बिहारी भी अब गुस्साता नहीं। हालांकि अभाव में भी आनंद मनाने की अपनी पुरानी आदत के मारे वह उन पर हंसने से बाज नहीं आता। अब यह हंसी-ठिठोली प्रभु वर्ग को अपने ऊपर प्रहार जैसी लगती है तो वह क्या करे! वह तो पूंजीवादी उदारता की इस चतुराई पर चकित है कि अंतिम व्यक्ति के चेतना-विकास के सिद्धांत-सूत्र से बंधी सड़क-बिजली-पानी जैसी निर्मितियों को ‘वर्ग निरपेक्ष’ करार देकर विकास का सबसे पहले और सबसे ज्यादा उपभोग करनेवाले प्रभुवर्ग को ‘वर्ग विहीन’ सिद्ध किया जा रहा है! सबसे ऊंचे ‘क्लास’ को ‘मास’ बनाया जा रहा है। वाह! यही तो है असली विकास - वर्गरहित समाज निर्माण की बुनियाद! यह समझ ही आम बिहारी में हंसी पैदा करती है। सो वह इन्फ्रास्ट्रक्चरल निर्मितियों के सिलसिले में किये जा रहे चुनावी वादो-दावों को अब ‘लूट और लोभ की नयी स्ट्रैटजी’ कहकर नकारता नहीं। नकारना चाहता भी नहीं। लेकिन वह विकास का वरदान देने को लालायित प्रभुओं पर भरोसा करने के लिए अपने अनुभव से अर्जित इस इतिहास-ज्ञान और समझ को नकारने में समर्थ नहीं हो पा रहा कि उसके जिंदा रहने का अवसर मात्र मुहैया करनेवाली इन निर्मितियों से क्या उसमें अपने भविष्य को संवारने की शक्ति पैदा हो सकती है? ऐतिहासिक तौर पर तो ऐसी निर्मितियां उसे जिंदा रहने के लिए अपनी जमीन से उखड़ने और शक्तिहीन एवं याचक बने रहने को मजबूर करती आयी हैं। क्या 21वीं सदी में उसका यह अनुमान बेबुनियाद साबित होगा कि सड़क-बिजली-पानी के चुनावी वादे लोकतंत्र में मालिक होकर भी याचक बने रहने की उसकी मजबूरी को स्थाइत्व देने की परंपरा का ही आकर्षक विस्तार है? क्या उसकी यह आशंका उसकी मूर्खता का प्रमाण है कि सत्ता पर काबिज होने के लिए आधुनिक प्रभु सड़क-बिजली-पानी की निर्मितियों को ‘क्लास न्यूट्रल’ करार देकर पूंजीवाद की प्रचलित ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ का ही नया पाठ कर रहे हैं?

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